नितिन अग्रवाल
शांति नोबेल पुरस्कार" ने अंततः अपनी "इज्जत" बचा ली?
**परंतु क्या *"मोगैम्बो"* भी खुश हुआ?*" राजीव खंडेलवाल।
(लेखक कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष, बैतूल हैं)
Email Id: rajeevak2@gmail.com Date : 11-10-2025
*भूमिका।*
‘‘नॉर्वेजियन नोबेल समिति’’ ने 10 अक्टूबर 2025 को ओस्लो में वेनेजुएला की विपक्षी नेत्री मारिया कोरिना मचाडो जिन्हें "आयरन लेडी* भी कहा जाता है, को वर्ष 2025 का "नोबेल शांति पुरस्कार" देने की घोषणा की। यह सम्मान उन्हें वेनेजुएला के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा और तानाशाही से लोकतंत्र की ओर शांतिपूर्ण संक्रमण के लिए किए गए उनके अथक प्रयासों के कारण दिया गया। वस्तुतः मारिया को यह पुरस्कार दिया जाना विश्व के सभी लोकतांत्रिक (तथाकथित) तानाशाहों के लिए एक स्पष्ट संदेश भी है। जो भी व्यक्ति लोकतंत्र को बचाने और उसे सशक्त बनाने के लिए कदम उठाएगा, विश्व उसके शांतिपूर्ण प्रयासों को नमन करेगा, चाहे वह *"सत्ता"* के विरुद्ध ही क्यों न खड़ा हो। वास्तव में नोबेल शांति पुरस्कार का उद्देश्य भी तो यही है-शांति को बढ़ावा देना, मानवाधिकारों की रक्षा करना और संघर्षों के समाधान में योगदान देना। नोबेल पुरस्कार में एक मिलियन अमेरिकन डॉलर अर्थात 8.30 करोड़ रूपये की राशि भी दी जाती है।
*अंततः नोबेल पुरस्कार की जीत हुई।*
जब से डोनाल्ड ट्रंप ने वर्ष 2025 के नोबेल शांति पुरस्कार पाने की “हुंकार” लगाते हुए स्वयंभू दावेदारी भरी थी, तभी से ट्रम्प की दादागिरी, सनक व ‘‘टैरिफ वार’’ के ‘‘हथियार’’ का उपयोग कर विश्व में ट्रम्प के बढ़ते दबाव के कारण “नोबेल पुरस्कार” बहुत डरा हुआ होकर ‘‘असहज’’ हो गया था। इसकी एक वजह यह भी थी कि “नोबेल” किसी “कसाई के खूंटे से बंधने” के लिए तैयार नहीं था और न ही *"घुटने टेकने"* के लिए तैयार था। क्योंकि “नोबेल” तो “शांति का प्रतीक” है, जिसे कोई *"मुखौटा नहीं वास्तविक"* “शांति दूत” ही प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है। जबकि विश्व के विभिन्न हिस्सों में चल रहे अधिकांश युद्धों में विश्व का “दादा” बनने की चाह में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ट्रंप की *"भूमिका"* रही है। ट्रम्प पहले युद्ध को भड़काने और बढ़ाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते है, और फिर “चौधरी” बनकर ‘‘चौधराहट’’ कर सैन्य शक्ति और बमबारी के दम पर शांति स्थापित करने की नौटकीं कर “नरेटिव” बनाने की कोशिश करते हैं। इसे इस उदाहरण से आप बखूबी समझ सकते हैं। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वच्छता अभियान प्रारंभ किया था तब एक वीडियो बहुत वायरल हुआ था जहां एक नेता पहले कचरा *"फेंक"* रहे थे और फिर झाड़ू लगाकर *"साफ"* कर रहे थे। यही ट्रम्प की तथाकथित शांति की नीति है। ट्रंप की यह “शांति स्थापना” असल में 24 कैरेट की नहीं, बल्कि 5 माइक्रॉन गोल्ड-पॉलिश वाली थी। दिखने में चमकदार, पर असली नहीं। सच तो यह है कि अगर अमेरिका अपने सैन्य उद्योगों व सामानों के लिए बाजार के लिए युद्ध न भड़काए, तो विश्व में स्वयमेव अधिकांशत: शांति बनी रह सकती है। आखिर “जिसका धंधा ही कफन और ताबूत का हो, वह शांति कैसे चाहेगा!”। यही कारण है कि इस बार वास्तव में लोकतंत्र को स्थापित करने वाली शांति की जीत हुई है।
*‘‘डोनाल्ड ट्रंप प्रयासों में असफल’’।*
पिछले छह महीनों से डोनाल्ड ट्रंप हर मंच पर जबरदस्त लॉबिंग कर प्रयासरत थे कि उन्हें वर्ष 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार मिल जाए। इस हेतु ट्रम्प ने दूसरे देशों पर भी जबरदस्ती दबाव बनाया। ट्रम्प इतने अति आत्मविश्वास में थे कि "व्हाइट हाउस" में नोबेल पुरस्कार मिलने की आशा में स्वागत कार्यक्रम की तैयारी भी चालू हो गई थी। ट्रम्प का तर्क था कि उन्होंने अपने कार्यकाल के 9 महीनो में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में “आठ युद्धों को रोक, शांति स्थापित करने” के सफल प्रयास किए हैं। अमेरिका के प्रतिष्ठित समाचार पत्र “द गार्जियन” के अनुसार, ट्रंप नोबेल पुरस्कार पाने की दृष्टि से इतने मोहग्रस्त हो गए थे कि उन्होंने अपनी विदेश नीति ही इस उद्देश्य से गढ़ ली थी। परंतु ट्रंप यह भूल गए कि “नोबेल” पाने के लिए सिर्फ युद्धविराम नहीं, बल्कि मन और मंशा दोनों की शांति जरूरी है। अततः ट्रम्प का ‘‘ट्रंप कार्ड’’ (तुरूप का इक्का) नहीं चला।
*ट्रम्प का ‘‘नोबेल सपना टूटना ही था’’।*
ट्रंप ने “नई टैरिफ नीति” लाकर “टैरिफ वॉर”छेड़ दी। यानी तथाकथित शांति की बात करते-करते विश्व में नई ‘‘अशांति’’ पैदा कर दी। नोबेल के लिए जिस शांति की आवश्यकता है, वह सिर्फ युद्ध क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि प्रत्येक राजनैतिक, संवैधानिक, व्यापारिक, सामाजिक, धार्मिक समस्त क्षेत्रों में। सच तो यह है कि “कच्चे घड़े में पानी भरने के प्रयास में घड़ा बिखर जाता है”। हुआ यही। आज चर्चा इस बात की नहीं कि नोबेल पुरस्कार किसे मिला, बल्कि इस बात की ज्यादा है कि ट्रंप को नहीं मिला! असल में यही “नोबेल पुरस्कार” की जीत है, जिसने ट्रंप के बनाये “नरेटिव” को पू ध्वस्त कर अपनी सर्वकालीन प्रतिष्ठा बनाये रखी। वैसे विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्ष प्रेसिडेंट ट्रंप के नोबेल पुरस्कार की ‘‘गंभीर दावेदारी करने’’ से नोबेल पुरस्कार की महत्ता व प्रतिष्ठा पर मोहर भी लगी।
*‘‘नोबेल पुरस्कार ने अपनी इज्जत बचाई’’।*
“नोबेल पुरस्कार” डोनाल्ड ट्रंप जैसे व्यक्ति के पास न जाकर सचमुच में उसने अपनी *"इज्जत"* बचा ली। हमारे मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी पहले यही बताया कि “ट्रंप का नाम नोबेल सूची में नहीं है” पर यह नहीं बताया कि किसे मिला है? इस तथ्य को बाद में बतलाया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि “चक्की में से साबुत निकल आने वाले” ट्रंप ने भारत में अपने संपर्कों के माध्यम से किस तरह का दबाव बनाने की कोशिश की थी। परंतु अंततः वे औंधे मुंह ही गिर पड़े। “ऑपरेशन सिंदूर” के बाद भारत-पाक युद्ध विराम का श्रेय लेने के लिए उन्होंने लगभग 50 बार दावा किया। यद्यपि भारत ने अधिकृत रूप से इससे इंकार किया। परन्तु प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रम्प का नाम लेकर कभी सीधा खंडन नहीं किया। ट्रंप के “पालित जमूरे” पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ परस्पर घोर विरोधी इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी ट्रंप को नोबेल पुरस्कार दिए जाने के लिए नामजद किया। इसी प्रकार अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव सहित पांच देशों ने भी उसी तर्ज पर उनका समर्थन किया।
अहा! “सूप बोले तो चलनी भी बोले, जिसमें बहत्तर छेद”!
*ट्रंप का शांति पुरस्कार का दावा!क्या मजाक नहीं?*
‘‘विश्व का सबसे पुराना’’ लोकतांत्रिक देश अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने “विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र” देश ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान के विरुद्ध की गई सैन्य करवाई से टैरिफ वार की धमकी द्वारा “बातचीत की टेबल” पर लाने का दावा कर अपने लिए “नोबेल” का रास्ता खोला। परंतु सच यह है कि “कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय के मद में चूर” ट्रंप ने खुद को “पीस प्रेसिडेंट” बताते हुए नौ महीने के कार्यकाल में “आठ युद्धों को समाप्त करने” का झूठा दावा किया।
*लोकतंत्र का मतलब ही शांति।*
लोकतंत्र का सीधा संबंध शांति से होता है। यही कारण है कि तानाशाही शासक वाला देश वेनेजुएला में लोकतंत्र की रक्षा हेतु 30 वर्षों से संघर्षरत मारिया को यह पुरस्कार मिला। आज जब हम चारों ओर नजर दौड़ाते हैं, तो पाते हैं कि लोकतांत्रिक देशों में भी “प्राकृतिक शांति” नहीं, बल्कि “दादागिरी की शांति” हावी है। लोकतंत्र भी आजकल निर्वाचित निरंकुशता (ऑटोक्रेसी) में बदल गया है। “कहि रहीम कैसे निभे केर बेर कौ संग”। यही ट्रम्प की स्थिति है।
नोबेल शांति पुरस्कार पाने के लिए आपको “शांति दूत” बनना पड़ता है, न कि ‘‘शांति का व्यापारी’’। लेकिन आज की विश्व व्यापी राजनीति में भी ‘‘परसेप्शन और ब्रांडिंग’’ का बोलबाला है। इसलिए ट्रंप पहले युद्ध के मैदान ‘‘सजाते’’ हैं, दो देशों के बीच तनाव को बढ़ाते हुए युद्ध के दुष्चक्र में झोंक देते हैं। फिर कैमरे के सामने शांति के ‘‘मसीहा’’ बनने का असफल प्रयास करते हैं।
*निष्कर्ष।*
इस बार नोबेल समिति ने न केवल एक सच्चे लोकतंत्र सेवी को सम्मानित किया, बल्कि स्वयं “नोबेल” की गरिमा और प्रतिष्ठा को भी अक्षुण्ण रखा। इसलिए कहा जा सकता है।
“नोबेल जीता नहीं, बल्कि इस बार सचमुच ‘शांति’ ने जीता है।”
अंत में जाते-जाते मारिया की सोशल प्लेटफार्म *एक्स* में की गई इस पोस्ट को पढ़िए ।
"मैं इस पुरस्कार को वेनेजुएला के पीड़ित लोगों और राष्ट्रपति ट्रंप को उनके निर्णायक समर्थन के लिए समर्पित करती हूं!"
मतलब *नॉर्वेजियन नोबेल समिति* का करा-धरा सब बेकार?
साथ ही *लेख* भी *जीरो* हो गया? क्योंकि उक्त पोस्ट से लेख की आत्मा ही समाप्त हो गई।
0 टिप्पणियाँ